मैं टैक्स क्यों दूं? यह सवाल गैरकानूनी हो याअनैतिक, लेकिन है बहुत बड़ा। सरकार भी इससे परेशान है। शायद इस सवाल का ही असर है कि तमाम कोशिशों के बाद भी आयकर (Income Tax) भरने वाली आबादी का प्रतिशत दहाई अंक में भी नहीं (6.25 प्रतिशत) है।यह आंकड़ा बढ़ाने में तमाम सरकारें नाकाम साबित हो रही हैं।
इनकम टैक्स विभाग की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों के मुताबिक देश के 132 करोड़ में से 8.27 करोड़ लोग ही आयकर भरते हैं। यहां इन आंकड़ों के साथ यह भी बताया गया है कि अमेरिका की 45 फीसदी आबादी टैक्स देती है। यहां टैक्स देने वालों की कम संख्या होने के पीछे देश में ‘टैक्स कल्चर’ का अभाव, मैं टैक्स क्यों दूं जैसी भावना, टैक्स को बोझ समझने की मनोवृत्तिजैसे कारण गिनाए गए हैं। साथ ही, कारण बता कर लोगों को ऐसी मानसिकता छोड़ने और ‘टैक्स कल्चर’ विकसित करने का संकल्प लेने की अपील की गई है।
डेढ़ दर्जन तरह के टैक्स
सरकार का तर्क है कि भले ही यहां अमेरिका, ब्रिटेन जैसे कई विकसित देशों की तरह सामाजिक सुरक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलती हों, लेकिन हमें मुद्दे को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और इस बात की सराहना करनी चाहिए कि यहां सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, सब्सिडीजैसी कई तरह की जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं। सरकार का तर्क है कि टैक्स देश में बुनियादी सुविधाएं विकसित करने के लिए भी जरूरी है, जबकि टैक्स देने वाले मानते हैंं कि उन्हें अस्पताल बनवाने के लिए टैक्स देने के बाद प्राइवेट हॉस्पिटल्स में इलाज का भारी-भरकम बिल (जीएसटी समेत) भरना होता है, स्कूल के लिए टैक्स देने के बादबच्चों के लिएनिजी स्कूलों में मोटी फीस (दाखिले के वक्तएकमुश्त रकम के अलावा)चुकानी होती है। गाड़ी खरीदते वक्त रोड टैक्स देने के बाद भी सड़कों पर चलने के लिए टोल टैक्स देना पड़ता है। कुल मिला कर भारत में लोगों को डेढ़ दर्जन तरह के टैक्स देने पड़ते हैं।
टैक्स देने के बाद भी सुविधानहीं
हकीकत यह है कि स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए सरकार द्वारा बनाए या चलाए जाने वाले संस्थानों में सुविधाओं का अभाव है और सुविधा के नाम पर मोटी रकम वसूलने वाले निजी अस्पतालोंवस्कूलों पर सरकार का बहुत अंकुश नहीं है।एक रिपोर्ट के मुताबिक, गांवों की 70 और शहरों की 80 प्रतिशत आबादी निजी अस्पतालों पर निर्भर है। साल 2021 में प्राइवेट हॉस्पिटल सेक्टर को 9995.06 अरब रुपए का आंका गया था और अनुमान है कि 2027 तक यह 25429.49 अरब रुपए हो जाएगा।
टैक्स के पैसों से वोट चमकाने की राजनीति
चंद लोगों से वसूले गए भारी-भरकम टैक्स का एक बड़ा हिस्सा सरकारेंराजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करती रही हैं। राहत के नाम पर बड़ी संख्या में लोगों को मुफ्त का सामान-सुविधा मुहैया कराने पर भारी-भरकम रकम खर्च कीजाती है। साल 2022-23 में 17 दिसंबर तक सरकार ने 11,35,754 करोड़ रुपए प्रत्यक्ष कर के तौर पर वसूले। वित्त वर्ष 2021-22 में यह रकम9,47,959 करोड़ रुपए थी। अप्रैल 2020 से दिसंबर 2022 तक गरीबों को मुफ्त राशन देने पर ही करीब चार लाख करोड़ खर्च हुए।
कोरोना के वक्त शुरू की गई यह योजना अब दिसंबर 2023 तक बढ़ा दी गई है। एक पहलू यह भी है कि तीन साल बाद भी इसके लाभान्वितों की संख्या कम नहीं हुई है। करीब 81 करोड़ लोगों को इसका फायदा मिलने की बात सरकार कहती रही है। इनकी गरीबी कम करने के बजाय इन्हें मुफ्त अनाज देने पर सरकार का जोर कोरोना काल खत्म होने के बाद भी कायम है।
कुछ और कारण
टैक्स चोरी नहीं रोक पाना, इनकम छिपाने वालों को पकड़ने के बजाय टैक्स चुकाने वालों पर ही ज्यादा से ज्यादा बोझ डालना जैसी विसंगतियां भी लोगों में मैं टैक्स क्यों दूं का भाव मजबूत करने में अहम रोल निभाती हैं।
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