प्रो. एन.के. गांगुली
इस समय पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी से उबरने के लिए विभिन्न रणनीतियों पर मंथन कर रही है और शायद यही सही समय है कि वेक्टर रोग जनित जानलेवा बीमारी मलेरिया पर भी बात की जाये और इसके उन्मूलन की सार्थक रणनीति बनाई जाये। विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2021 के अनुसार दुनिया में वर्ष 2019 में मलेरिया के 22.70 करोड़ मामले थे जो 2020 में बढ़कर 24.10 करोड़ हो गए। अगर मलेरिया से होने वाली मौतों की बात करें तो यह वैश्विक आंकड़ा 2019 के मुकाबले 2020 में 12 प्रतिशत बढ़ा है, यानी 6,27,000 मौतें। यह चिंता का विषय है। भारत के मामले में यह आंकड़ा भयानक है। वर्ष 2020 में दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया के 50 लाख मामले सामने आये। इनमें तीन देश ऐसे थे, जहां मलेरिया के कुल 50 मामलों में से 99.7 प्रतिशत मामले थे, और इनमें भारत में मलेरिया के सबसे ज्यादा रोगी (82.5 प्रतिशत) थे।
दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र में मलेरिया से सबसे अधिक मौतें (82 प्रतिशत) भी भारत में ही हुई हैं। इससे प्रतीत होता है कि मलेरिया जैसी जानलेवा बीमारी से लड़ने के लिए और इसे हराने के लिए हमें अपनी स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं और इंटरवेंशन को और बेहतर बनाना होगा। वर्ष 2015 में कुआलालम्पुर में आयोजित ईस्ट एशिया सम्मिट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2030 तक भारत से मलेरिया उन्मूलन की प्रतिबद्धता जताई थी। प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद 2016 में नैशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया ऐलिमिनेशन तथा नैशनल स्ट्रेटेजिक प्लान फॉर मलेरिया ऐलिमिनेशन (2017-22) भी लांच किया गया। इसके परिणाम तत्काल सामने आने लगे- सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में मलेरिया के मामलों में 69 प्रतिशत तक की कमी आई।
भारत एकमात्र हाई-ऐन्डेमिक देश है जहां 2018 के मुकाबले 2019 में मलेरिया के मामलों में 17.6 प्रतिशत की कमी आई है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 में मलेरिया के कुल 1,57,284 मामले दर्ज किए गए जबकि वर्ष 2019 में यह आंकड़ा 2,86,091 था, यानि कि वर्ष 2020 में मलरिया के मामलों में लगभग 45 प्रतिशत की कमी आई। हालांकि, महामारी के कारण देश भर में स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर असर पड़ा था और 2020 में मलेरिया के रोगियों में आई कमी का संबंध इस दौर में कम दर्ज हुए मामलों से है। मलेरिया की रोकथाम व नियंत्रण के लिए कई इंटरवेंशन की पहचान की गई।
उदाहरण के लिए कीटनाशी-युक्त मच्छरदानी और लंबे समय तक चलने वाले कीटनाशी मच्छरदानी मलेरिया को रोकने के दो प्रभावी तरीके हैं। हालांकि कीटनाशी-युक्त मच्छरदानी का वितरण एक चुनौती है। 2020 में जितनी मच्छरदानियां वितरित करने की योजना थी उनमें से केवल 50 प्रतिशत का वितरण ही संभव हुआ है। दवा के प्रति लोगों का प्रतिरोध भी एक चुनौती है। देश के कुछ हिस्सों में ऐंटी मलेरिया ड्रग रेसिस्टेंस और इनसेक्टिसाइड रेसिस्टेंस की स्थितियां सामने आई हैं, जैसा कि पड़ोसी देशों में ए.सी.टी. रेसिस्टेंस समेत मलेरिया मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंस विकसित हो रहा है। कुछ अन्य महत्वपूर्ण डायग्नोस्टिक इंटरवेंशन का पुनःमूल्यांकन उपयोगी रहेगा ताकि ये पता चल सके कि वे कितने प्रभावी हैं और भारत में इनके विस्तार करने की क्या संभावनाएं हैं। इस विषय में रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट का उल्लेख करना आवश्यक है जो मानव रक्त में मलेरिया परजीवी (ऐंजीजेन) की मौजूदगी का पता लगाकर मलेरिया के डायग्नोसिस में मदद करता है। नवीनतम विश्व मलेरिया रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2020 में 2 करोड़ आर.डी.टी. वितरण दर्ज किए।
एक अन्य परीक्षण होता है आई.सी.टी. मलेरिया कॉम्बो कैसेट टेस्ट- जिसे एक उपयोगी सपोर्ट टूल के तौर पर देखा जा रहा है, इसकी मदद से उन स्थानों पर मलेरिया को डायग्नोस करने में मदद मिलेगी जहां अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं, जहां उत्तम माइक्रोस्कोपी डायग्नोसिस या तो है नहीं या फिर उसकी गारंटी नहीं है। भारत में मलेरिया की व्यापक स्थिति को देखा जाए तो ऐसे कुछ आयाम हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। गर्भावस्था में मलेरिया होना मां, भ्रूण व नवजात के लिए एक बड़ी जटिल स्थिति है। गर्भावस्था में मलेरिया के मामलों में ज्यादा स्कॉलरशिप सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और उसी के अनुसार ऐसे मामले कम करने की व्यवस्था विकसित करनी होगी।
कुछ अध्ययनों में उच्च सकल बोझ के संकेत मिले हैं जो कि 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत की रेंज में है और इस पर ध्यान बढ़ाने की जरूरत है। मलेरिया से लड़ाई में हमें उच्च संक्रमण वाले इलाकों से परिचित होना होगा जैसे आदिवासी इलाके। भारत के नैशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया ऐलिमिनेशन (2016-2030) के पास एक ट्राइबल मलेरिया एक्शन प्लान है जो विभिन्न राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों में आदिवासी व जातीय जनसंख्या समूहों में मलेरिया रोकथाम व नियंत्रण गतिविधियों का काम करता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा की ये कोशिशें सफल हों। पर्वतीय, जंगली, रेगिस्तान व संघर्ष ग्रस्त इलाकों के अनुसार एक्शन प्लान और नीतियां बनाने की जरूरत है और उन्हें स्थिति के अनुसार बेहतर बनाते रहना होगा | समसामयिक चुनौतियों में भावी उन्मूलन रोडमैप प्रभावी कारक होगा। जलवायु परिवर्तन और तीव्र शहरीकरण मलेरिया के लिए उच्च जोखिम-कारक हैं। दुनिया भर में तापमान बढ़ने से मच्छर ऊंचे इलाकों में जाएंगे और बीमारी फैलाएंगे।
इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी 6ठी समीक्षा रिपोर्ट ने ऊंचे इलाकों में मलेरिया जैसी बीमारियों में वितरण बदलाव का संकेत दिया है जिनमें हिमालयी क्षेत्र में बीमारियों का प्रकोप शामिल है। भले ही यह परिदृश्य चुनौतीपूर्ण प्रतीत होता हो, किंतु सही राजनीतिक इच्छा शक्ति और नीति पहले से मौजूद है जो बदलाव हेतु आवश्यक है। हमें बस यह करना है की सार्वजनिक स्वास्थ्य के कुछ मूलभूत मुद्दों पर बेहतर ढंग से काम करना हैः गड्ढ़ों को समतल करना, बेहतर मैनहोल डिजाइन करना और बायोपैस्टिसाइड विकसित करना – इस प्रकार मलेरिया की रोकथाम में मदद मिलेगी। जब मॉनसून आए तो हमें उच्च जोखिम वाले राज्यों/जिलों में स्क्रीनिंग कैम्प लगाने होंगे, तय समय पर सफाई अभियान चलाना होगा, वेक्टर नियंत्रण व नियमित फॉगिंग करनी होगी।
जिन इलाकों में मलेरिया ज्यादा फैलता है वहां के लिए लंबे समय तक चलने वाले कीटनाशी मच्छरदानी की खरीद और वितरण करना होगा। इस विषय में समुदाय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। जिस प्रकार भारत ने सामुदायिक सहभागिता और प्रतिबद्धता के साथ पोलियो का उन्मूलन किया है उसी प्रकार मलेरिया के लिए भी यही रणनीति अपनानी होगी। सामुदायिक लीडर और प्रभावशाली व्यक्ति इस रोग के बारे में लोगों के बीच अंतिम छोर तक बेहतर जागरुकता सुनिश्चित कर सकते हैं और साथ ही लंबे समय तक चलने वाले कीटनाशी मच्छरदानी के वितरण व सफाई अभियान जैसे रोकथाम के उपायों को भी किर्यन्वयित कर सकते हैं। मलेरिया जैसी बीमारी से लड़ने के लिए ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी कोशिशों के साथ, समग्र नीतिगत हस्तक्षेप व सेवाओं की प्रभावी डिलिवरी से ही हमें 2030 तक भारत को मलेरिया मुक्त बनाने के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।
(प्रो. एन.के. गांगुली, आईसीएमआर के पूर्व महानिदेशक हैं)
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