उन पर भ्रामक सूचनाएं हो सकती हैं। हालांकि अदालत ने यह बात कानूनी मामलों के मद्देनजर कही और न्यायिक अधिकारियों को ऐसे स्रोतों के उपयोग को लेकर आगाह किया है, पर इसे व्यापक संदर्भ में लेने की जरूरत है। आजकल तथ्यों के लिए विकिपीडिया जैसे मंचों पर अध्येताओं, व्यावसायिक गतिविधियों, शैक्षणिक कार्यक्रमों की निर्भरता लगातार बढ़ती गई है।
ऐसे में अगर यह मंच इतना गैर-भरोसेमंद माना जा रहा है, तो यह गंभीर बात है। बहुत सारे विद्यार्थी ऐसे मंचों के सहारे विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करते देखे जाते हैं। मगर इस हकीकत से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि विकिपीडिया पर बहुत सारे तथ्य गलत या भ्रामक पाए जाते हैं। इसकी एक वजह स्पष्ट है कि इस मंच ने संपादन की सुविधा खुली छोड़ रखी है। कोई भी वहां जाकर तथ्यों को सुधार सकता है। तथ्यों में उलट-फेर कर सकता है।
बहुत पहले इसके कई बड़े उदाहरण देखने को मिल चुके हैं। गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल जैसी शख्सियतों के जीवन से जुड़े अनेक भ्रामक तथ्य उन पर परोसे गए हैं। एक सामान्य अध्येता ऐसे तथ्यों को पकड़ नहीं पाता और उसके मन में कई तरह के दुराग्रह पनप सकते हैं।
खासकर कानूनी मामलों में अगर विकिपीडिया जैसे मंचों पर गलत और भ्रामक तथ्य परोसे जाते हैं और उनका उपयोग किसी मामले को सुलझाने के लिए किया जाता है, तो उससे आने वाले समय के लिए गलत नजीर भी बनती है। इसलिए कानून की अधिकृत पुस्तकें ही इस मामले में प्रामाणिक मानी जानी चाहिए। लेकिन आज जिस तरह युवा पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई को लेकर इंटरनेट पर निर्भर होती गई है।
वह अपनी हर जिज्ञासा को लेकर तुरंत इंटरनेट खंगालना शुरू कर देती है, खासकर विकिपीडिया जैसे ज्ञानकोश पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेती है, उसे खतरनाक नतीजे भी भुगतने पड़ सकते हैं। उस पर भरोसा करके अगर उसने किसी सवाल का गलत जवाब दे दिया, जो अधिकृत पुस्तक में छपे तथ्य से मेल नहीं खाता, तो उसे नुकसान हो सकता है। जिन प्रतियोगी परीक्षाओं में ऋणात्मक मूल्यांकन की व्यवस्था है, उनमें भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी को गंभीरता से लेने की जरूरत है।
यह सही है कि प्रामाणिक पुस्तकों का विकल्प दूसरा कोई माध्यम नहीं हो सकता, पर पिछले कुछ सालों में जिस तरह इंटरनेट एक सशक्त शिक्षा माध्यम के रूप में उभरा है, उसमें ज्ञान की दुनिया का खासा विस्तार हुआ है। पीडीएफ रूप में और किंडल आदि पर पुस्तकें पढ़ने की सुविधा उपलब्ध है। तमाम शैक्षणिक संस्थान अपनी पाठ्य और सहायक पुस्तकें इंटरनेट पर डालते हैं। ई-पाठशाला जैसी व्यवस्थाएं हैं।
मगर इसके समांतर इंटरनेट पर बहुत सारे ऐसे मंच सक्रिय हैं, जो बड़े पाठक समुदाय को आकर्षित करने और लाभ कमाने के लोभ में चल रहे हैं। उन पर परोसी जाने वाली बहुत सारी सामग्री अपुष्ट और अप्रामाणिक है। इसे रोकने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जा रही है। किसी भी माध्यम से गलत तथ्य और भ्रामक जानकारियां उपलब्ध कराना एक प्रकार का अपराध है।
मगर इसके लिए कोई कड़ी कार्रवाई न होने की वजह से ऐसे अधकचरे मंच खूब फल-फूल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद यह बात रेखांकित हुई है कि ऐसे मंचों, सूचना के स्रोतों पर नजर रखने और उन्हें अनुशासित बनाने के लिए एक नियामक तंत्र होना ही चाहिए।
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