केरल की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो सके कि जब देश के सभी राज्य तेजी से विकास करेंगे, तभी देश उन्नति करेगा। यह अच्छी बात है कि पिछले कुछ समय से विभिन्न राज्य सरकारें विकास के मामले में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं और अपने यहां अधिक से अधिक निवेश लाने और उद्योग-धंधों को स्थापित करने पर बल दे रही हैं।
यह सिलसिला कायम रहना चाहिए। इससे अच्छा और कुछ नहीं कि विभिन्न राज्य विकास के मामले में एक-दूसरे से होड़ करें, लेकिन इस होड़ को बढ़ावा देने के साथ केंद्र सरकार को यह भी देखना चाहिए कि कोई भी राज्य विकास के मोर्चे पर सुस्ती का शिकार न होने पाए, क्योंकि देश को आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल बनाने का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब विकास के मामले में पीछे छूट गए राज्य भी तेजी के साथ तरक्की करें। इसी कारण केंद्र सरकार उन राज्यों पर विशेष ध्यान दे रही है, जो अन्य राज्यों की तुलना में अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ सके हैं।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री अनेक अवसरों पर यह कह चुके हैं कि देश का पूर्वी हिस्सा आर्थिक रूप से उतना सशक्त नहीं, जितना अन्य हिस्से हैं। केंद्र सरकार ने अपने स्तर पर इसके लिए जतन भी किए हैं कि बंगाल, बिहार, ओडिशा, झारखंड आदि के साथ पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्य विकास के मामले में अन्य राज्यों के समकक्ष खड़े हों। इसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं, लेकिन इसी के साथ यह चिंताजनक है कि कई राज्य आमदनी की तुलना में खर्च अधिक कर रहे हैं। इसके चलते उनका घाटा बढ़ता जा रहा है। यह शुभ संकेत नहीं। न तो आर्थिक नियमों की अनदेखी की जानी चाहिए और न ही वित्तीय अनुशासन की।
दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है और वह भी तब, जब नीति आयोग के साथ रिजर्व बैंक रह-रहकर यह रेखांकित करता रहता है कि गैर जरूरी खर्चे कई राज्यों की आर्थिक सेहत बिगाड़ रहे हैं। इसके बाद भी ऐसे राज्य चेतने से इनकार कर रहे हैं। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि वे लोकलुभावन नीतियों को अपना रहे हैं। इसी कारण पिछले कुछ समय से रेवड़ी संस्कृति की चर्चा हो रही है। विडंबना यह है कि कई राज्य सरकारें रेवड़ी संस्कृति की पैरवी करने में लगी हुई हैं। रिजर्व बैंक का कहना है कि किसी भी राज्य का कर्ज उसकी जीडीपी के 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन कई राज्य ऐसे हैं, जो इस लक्ष्मण रेखा की परवाह नहीं कर रहे हैं। कुछ राज्य तो ऐसे हैं, जो अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में खर्च कर रहे हैं। यह और कुछ नहीं आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली कहावत को चरितार्थ करना है।
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