जैक्सन की हत्या, समंदर में छलांग, हिंदुत्व के पुरोधा या माफीवीर? सावरकर की इस कहानी पर तो नजर डालिए

4 1 51
Read Time5 Minute, 17 Second

किस्सा- 1

साल 1910. भूमध्यसागर में एक शख्स बेतहाशा तैर रहा था. ये व्यक्ति आड़े-तिरछे तैरते हुए कभी पानी के ऊपर जाता, कभी नीचे. इस पर लगातार गोलियां बरसाई जा रही थीं. पानी में तैर रहा ये 'क्रांतिकारी कैदी' इसी जहाज के वॉशरूम की खिड़की (पोर्ट होल) से अपनी आजादी की चाह में समंदर में छलांग लगा चुका था.

इसे पकड़ने के लिए दो सिपाही भी समुद्र में कूद पड़े. फिर शुरू हुआ पकड़ने और बचने का खेल. ये रेस मुक्ति और गुलामी के बीच का था. बचने का मतलब था स्वतंत्रता, पकड़े जाने का अर्थ था काला पानी, कैद की काली कोठरी. जीवन भर के लिए.

इस कैदी को मौत को पछाड़कर भी फ्रांस के मार्सिले शहर पहुंचना था. जहां एक उम्मीद उसका इंतजार कर रही थी. तभी इस युवक ने सुबह की धूप में खिल रहे मार्सिले शहर को देखा, और अपनी तैराकी और भी तेज कर दी. लेकिन...

किस्सा-2

तारीख थी 21 दिसंबर, वर्ष 1909. नासिक के विजयानंद थियेटर में मराठी नाटक 'शारदा' का मंचन हो रहा था. ये नाटक नासिक के क्लेक्टर जैक्सन की विदाई के उपलक्ष्य में मंचित किया गया था. नासिक के भद्र लोगों के सर्कल में वेदपाठी और 'पंडित जैक्सन' के नाम से चर्चित जैक्सन का प्रमोशन हुआ था अब वह बंबई का कमिश्नर था. ये नाटक एक तरह से उसकी फेयरवेल पार्टी थी.

तय समय पर जैक्सन नाटक देखने आता है. तभी मौका पाकर 18 साल का एक क्रांतिकारी अनंत लक्ष्मण कन्हारे सामने आता है और अपनी पिस्टल से कलेक्टर जैक्सन के सीने में चार गोलियां उतार देता है. जैक्सन वहीं ढेर.

जांच में पता चलता है कि जिस पिस्टल से कन्हारे ने जैक्सन को गोली मारी थी उसे लंदन से एक क्रांतिकारी ने नासिक भेजा था.

दो कहानियों का कॉमन कनेक्शन

अब इस कहानी का कनेक्शन ऊपर के किस्से से जुड़ता है. असल में 28 साल की उम्र में समंदर में छलांग लगाने वाला शख्स और लंदन से नासिक हथियार भेजने वाला किरदार एक ही था. नाम था विनायक दामोदर सावरकर. जो वीर सावरकर कहलाए. आज सावरकर की 140वीं जयंती है. सावरकर हमारे अतीत का वो किरदार हैं जो हमारे वर्तमान को भी तीक्ष्णता से प्रभावित करते हैं.

जैक्सन केस से मिले सुराग से ब्रिटिश पुलिस सावरकर के दरवाजे तक पहुंच गई. तब सावरकर लंदन में कानून पढ़ रहे थे. पुलिस ने 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया गया. सुनवाई हुई. मजिस्ट्रेट ने उन्हें ब्रिटेन से बंबई भेजने का आदेश दिया.

1910 में लंदन से गिरफ्तारी के दौरान ली गई सावरकर की तस्वीर (फोटो- savarkarsmarak)

1 जुलाई 1910 को सावरकर इसी सफर पर रवाना होने के लिए ब्रिटिश जहाज एस एस मोरिया पर सवार हुए. छह दिन बाद 7 जुलाई की शाम को इस जहाज ने फ्रांस के तटवर्ती शहर मार्सिले के किनारे समंदर में लंगर डाला. सावरकर जहाज के सबसे निचले तल पर बनी एक कोठरी में छटपटाते रहे.

8 जुलाई 1910 की सुबह उन्होंने पहरेदारी में खड़े सिपाहियों से शौच जाने की अनुमति मांगी. सावरकर को शौचालय में बंदकर दरवाजे पर दो सिपाही खड़े हो गए. इसी बीच सावरकर ने पोर्ट होल का शीशा तोड़कर मुक्ति की उत्कट अभिलाषा लिए समु्द्र में छलांग लगा दी.

फ्रांस में राजनीतिक शरण की उम्मीद

सावरकर को जैसे ही मार्सिले शहर दिखा. वे पैर-हाथ जोर जोर से चलाने लगे. जब सावरकर हांफकर मार्सिले शहर पहुंचे तो उनके बदन पर नाममात्र के कपड़े थे. इधर दो सिपाही लगातार उनका पीछा कर रहे थे. आपाधापी में फ्रेंच नौसेना के ब्रिगेडियर Gendarmerie ने पकड़ लिया. सावरकर जिन्हें फ्रेंच नहीं आती थी, ने टूटी-फूटी भाषा में उस अधिकारी से कहा कि उसे फ्रांस में राजनीतिक शरण चाहिए और वे उसे एक मजिस्ट्रेट के पास ले चले.

कानून पढ़ रहे सावरकर जानते थे कि उन्होंने फ्रांस की जमीन पर कोई अपराध नहीं किया है, लिहाजा पुलिस हड़बड़ी में उन्हें भले ही गिरफ्तार कर लेती लेकिन उनपर कोई केस नहीं बनेगा.

सावरकर जिरह कर ही रहे थे कि उनका पीछा करते हुए सिपाही वहां पहुंच गए और सावरकर को देख चोर-चोर चिल्लाने लगे. आखिरकार ब्रिटिश सिपाहियों ने धौंस जमाकर फ्रेंच अधिकारी के कब्जे से सावरकर को ले लिया और उन्हें अरेस्ट कर लिया.

इसी के साथ इस बागी क्रांति ने नियति से चंद मिनटों की जो आजादी छिनी थी वो समाप्त हो गई. इसके बाद उनके जीवन में कारावास और काले पानी का लंबा दौर आया.

अकादमिक नहीं राजनीतिक छात्र

बांबे प्रेसिडेंसी के नासिक में 28 मई 1883 को जन्मे सावरकर की प्रारम्भिक पढ़ाई पुणे के नामी फर्ग्यूशन कॉलेज में हुई थी. बचपन की आदतों से सावरकर ने संकेत दे दिया था कि वे अकादमिक नहीं राजनीतिक छात्र थे. इसकी जल्द ही बानगी तब मिल गई जब सावरकर ने 20 वर्ष की उम्र में 1903 में अपने बड़े भाई के साथ मित्र मेला नाम के एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की थी, 1906 में ये संगठन अभिनव भारत नाम की संस्था में तब्दील हो गई. अपने राजनीतिक विचारों के लिए भी सावरकर को फर्ग्यूशन कॉलेज से निकाल दिया गया.

लंदन भले ही तब साम्राज्यवादी ब्रिटेन की राजधानी थी. लेकिन ये शिक्षा और स्वर्णिम भारत न्यूज़ का भी केंद्र था. ब्रिटिश कॉलोनी होने के बावजूद भारत के दर्जनों भावी स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी लंदन में कानून की पढ़ाई पढ़ी और पश्चिम के लोकतांत्रिक और स्वतंत्रतावादी मूल्यों से परिचित हुए. रोशनख्याली का सबक सिखा.

सावरकर भी इसी कतार में थे. 1906 में वे लंदन पहुंचे और कानून पढ़ने लगे. लेकिन जंग-ए-आजादी से उनका नाता बना रहा.

अंडमान का काला पानी

सावरकर की मुक्ति की अभिलाषा असफल रही थी. उनके खिलाफ ब्रितानिया हुकुमत की फास्ट ट्रायल कोर्ट में दो मुकदमे चले. पहला आरोप था जैक्सन की हत्या के लिए उकसाने का. दूसरा था ब्रिटेन के सम्राट के खिलाफ साजिश रचना. ये साजिश थी भारत को ब्रिटिश उपनिवेश से अलग करने की.

एक जन्म में दो आजीवन कारावास की सजा

अंग्रेजी अदालत से सावरकर को एक ही जन्म में 2 आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. ये 25-25 साल की दो सजा थी. ये सजाएं एक साथ नहीं चलनी थी. यानी कि अंग्रेजों ने 1911 में 28 साल के सावरकर को 50 साल की कैद की सजा सुनाई.

सेल्युलर जेल, अंडमान निकोबार

सावरकर से खौफ खाने वाले अंग्रेज उन्हें भारत की मुख्य भूमि में रखकर किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे. इसलिए मुकर्रर किया गया काला पानी. यानी कि अंडमान का सेल्युलर जेल. राजनीतिक बंदी सावरकर 17 जून 1911 को बंबई से महाराजा जलयान पर सवार अंडमान के लिए निकले.

कारागृह ने अपना जबड़ा खोला

4 जुलाई 1911 को सेल्युलर जेल पहुंचा. सावरकर अपनी जीवनी 'मेरा आजीवन कारावास' में इस जेल का परिचय कराते हुए लिखते हैं, "चढ़ाई समाप्त हो गई सिल्वर जेल का द्वार आ गया, लोहे की चुलों से दाढ़ कड़कड़ाने लगी, फिर उस कारागृह ने अपना जबड़ा खोला और मेरे भीतर घुसने के बाद वह जबड़ा जो बंद हुआ तो पुन: ग्यारह वर्ष बाद ही खुला."

बता दें कि सावरकर ने अपनी किताब में सेल्युलर जेल को हर जगह सिल्वर जेल ही लिखा है. 698 कमरों की सेल्युलर जेल में सावरकर को 13.5 गुणा 7.5 फ़ीट की कोठरी नंबर 52 में रखा गया था.

कालापानी यानी की नरक. अंग्रेजी सरकार का ग्वांतनामो बे. सावरकर की जीवनी लिखने वाले आशुतोष देशमुख अपनी किताब 'ब्रेवहार्ट सावरकर' में इस जेल की जिंदगी कुछ यूं लिखते हैं, "कैदियों को शौचालय ले जाने का समय तय रहता था और शौचालय के अंदर भी उन्हें तय समय-सीमा तक रहना होता था."

लेकिन पेट खराब होने की स्थिति कैदियों के लिए असह्य पीड़ादायक थी. देशमुख लिखते हैं-

"कभी-कभी कैदी को जेल के अंदर अपने कमरे के एक कोने में ही मल त्यागना पड़ जाता था."
"जेल की कोठरी की दीवारों से मल और पेशाब की बदबू आती थी. कभी कभी कैदियों को खड़े खड़े ही हथकड़ियां और बेड़ियां पहनने की सजा दी जाती थी."

सब्जी में सांप और कनखजूरे

चूंकि काला पानी कैदियों को सबक सिखाने की जगह थी लिहाजा यहां प्रशासन की ओर से घोर अराजकता थी. कैदियों को लेकर न कोई नियम, न व्यवस्था. सावरकर अपनी जीवनी में लिखते हैं कि कई बार उन्हें और अन्य कैदियों को खाने में साग के साथ कनखजूरे और सांप मिलते. वे लिखते हैं, "न केवल हमने बल्कि और भी कई राजबंदियों ने स्वयं सब्जी में से इन कनखजूरों को निकालकर अंग्रेज अफसरों को दिखाया, उनसे बहस की, परंतु वे ढीठ अधिकारी हंसकर कहते- ओह... इट टेस्ट वेरी वेल."

कोल्हू से नारियल का तेल निकालने का काम

सावरकर ब्रिटिश सरकार के ऐसे कैदी थे जिनकी चर्चा ब्रिटिश अधिकारियों के सर्कल में होती रहती. लिहाजा उनपर खास नजर रखी जाती. इसी सेल्युलर जेल में सावरकर को कोल्हू से नारियल तेल निकालने का काम मिला. एक कैदी को अन्य कामों के अलावा रोजाना 30 पौंड (14 से 15 किलो) तेल निकालना पड़ता.

सावरकर लिखते हैं, "बिना रूके गोल-गोल घूमने से सिर चकराता था. अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ जाते थे, शरीर इतना थक जाता कि रात में तख्ते पर लेटते ही नींद आने के बदले करवट बदलते हुए रात काटनी पड़ती थी, दूसरे दिन प्रात:काल पुन: कोल्हू के सामने जा पहुंचता. इस तरह 6-7 दिन गुजारे... एक दिन बारी (अंग्रेज अधिकारी) आया और इठलाते हुए कहने लगा- यह देखिए आपके पासवाली कोठरी का बंदी दो बजे पूरा तीस पौंड तेल तौलकर देता है और आप शाम तक कोल्हू चलाकर भी पौंड-दो पौंड ही निकालते हैं, इस पर आपको शर्म आनी चाहिए."

कोल्हू में 14 दिनों तक पीसने के बाद सावरकर को रस्सी बांटने का काम दिया गया.

सावरकर की माफीनामे वाली चिट्ठियां

सेल्युलर जेल में रहते हुए सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार को लिखी गई माफीनामे की चिट्ठियां आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ती. सावरकर ने ये पत्र सेल्युलर जेल से रिहाई के लिए लिखे थे. इसके बदले में उन्होंने अपने कामों के लिए खेद जताया था. कांग्रेस पार्टी समेत सावरकर के विरोधी कहते हैं कि माफीनामा लिखने वाला 'वीर' कैसे हो सकता है.

सावरकर पर शोध करने वाले पत्रकार निरंजन तकले के हवाले से स्वर्णिम भारत न्यूज़ ने अपने एक लेख में लिखा है, "गिरफ्तार होने के बाद असलियत से सावरकर का सामना हुआ. जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और 29 अगस्त को उन्होंने अपनी पहली माफीनामा याचिका लिखी, वहां पहुंचने के डेढ़ महीने के अंदर. इसके बाद 9 सालों में सावरकर ने 6 बार अंग्रेजों को ऐसे पत्र दिए."

सेल्युलर जेल के दस्तावेजों के अनुसार 1911 से क्षमा याचिकाएं लिखने के बावजूद अंग्रेजी सरकार ने उन्हें 10 साल बाद 1921 से काला पानी से निकाला. फिर यहां से ले जाकर रत्नागिरी जेल में ठूस दिया. अंग्रेज 1911 से लेकर 1921 तक क्षमादान के नाम पर उनके साथ आंख मिचौली का खेल खेलते रहे.

क्षमादान पर खुद सावरकर क्या सोचते थे?

सावरकर ने अपनी किताब में क्षमादान से जुड़े उन सवालों की चर्चा की है, जिसपर आज सवाल उठते हैं. मसलन क्या जेल में रहते हुए आजादी की लड़ाई के प्रति उनकी आस्था कम हो गई थी? क्या क्षमादान पाने के लिए सावरकर क्रांति से दूरी बनाने तैयार हो गए थे?

सावरकर लिखते हैं, "राजबंदियों से अनुबंध पत्र हस्ताक्षर करवाया जाता- मैं भविष्य में कभी भी या अमुक वर्षों तक राजनीति और राज्यक्रांति में भाग नहीं लूंगा. पुन: यदि मुझ पर राजद्रोह का आरोप सिद्ध हो गया तो मैं अपना विगत उर्वरित आजन्म कारावास का दंड भी भुगतूंगा."

यानी कि रिहाई की एकमात्र शर्त ही थी कि आपको आजादी के आंदोलन से दूरी बना लेनी है.

सावरकर लिखते हैं कि इन शर्तों को मानने न मानने पर राजबंदियों में जोरदार बहस होती. उन्होंने लिखा है, "क्षमादान का तार आने के पश्चात राजबंदियों में गरमागरम बहस होने लगी कि यदि ऐसी शर्त थोप दी जाए तो उसे स्वीकार करें या नहीं."

राष्ट्रीय हित में क्षमादान की कोई भी शर्त मानी जाए

इसके बाद क्षमादन पर सावरकर अपनी राय बताते हैं, "मैं कहता रहा कि भविष्यकालीन तथा राष्ट्रीय हितानुकूल कोई भी शर्त मानी जाए."

सावरकर शिवाजी, गुरुगोविंद और कृष्ण का उदाहरण देते हुए बात आगे बढ़ाते हैं, "शिवाजी-जयसिंह, शिवाजी-अफजल, चमकोर के पश्चात पलायन में श्री गुरुगोविंद तथा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के अनेक उदाहरणों से सभी के मन पर मैं यही अंकित कर रहा था. जो मानधन, जिद्दी थे, उन वीरों को यह बात मान्य नहीं हो रही थी. इतने कष्ट, यंत्रणाएं झेलकर भी जिनका संकल्प रत्ती भर भी नहीं डिगा था, उन्हें मेरा विरोध करते देखकर मेरे मन में अपने देश के भविष्य के विषय में अधिकाधिक आशा पनपने लगी. परंतु अंत में मैं उनके गले में यह उतारने में सफल रहा कि वैसा ही करना उचित है, राजबंदियों की मुक्ति के समय सबने अनुबंध पत्र पर आखें मूंदकर हस्ताक्षर किए और फिर कारागार का ताला तोड़ दिया."

अनुबंध पत्र पर कैदियों द्वारा हस्ताक्षर की ये घटना 1920 की है, और इस बार भी सावरकर को अंग्रेजों ने नहीं छोड़ा. अबतक 9 साल कैद में गुजर चुके थे. कारागार में रहने के कई साल बाद सावरकर को पता कि इसी जेल में उनके बड़े भाई बंद हैं. ये जानकारी उनके लिए अथाह पीड़ा लेकर आई थी.

आखिरकार 2 मई 1921 को वो समय आया जब अंग्रेजी सरकार ने सावरकर की क्षमा याचिका पर आखिरकार विचार करते हुए उन्हें काला पानी से निकालकर महाराष्ट्र लाने के लिए तैयार हो गई.

विनायक दामोदर सावरकर

सावरकर अपने बड़े भाई के साथ सेल्युलर जेल से निकलकर बंबई जाने वाले पोत 'महाराजा' पर सवार हुए. बंबई में भी उनका जेल जीवन चालू रहा. बारह वर्ष बाद नासिक आए सावरकर को अंग्रेजी सरकार ने पहले रत्नागिरी जेल में बंद किया फिर उन्हें यरवदा जेल शिफ्ट कर दिया गया.

क्या रिहाई में गांधी का रोल था?

सावरकर की माफी के सवाल पर नवोदित इतिहासकार विक्रम संपत अपनी किताब 'सावरकर-एक भूले-बिसरे अतीत की गूंज' में लिखते हैं कि सावरकर के छोटे भाई नारायण राव ने 18 जनवरी 1920 के अपने पहले पत्र में शाही माफी के तहत अपने भाइयों की रिहाई कराने के संबंध में महात्मा गांधी से सलाह और मदद मांगी थी.

नारायण राव ने गांधी को लिखा था- "कल मुझे सरकार की तरफ से सूचना मिली कि रिहा किए गए बंदियों में सावरकर बंधुओं का नाम नहीं है. साफ है कि सरकार उन्हें रिहा नहीं कर रही है. कृपया आप मुझे बताएं कि ऐसे मामले में क्या करना चाहिए?"

इस पत्र का जवाब गांधी जी ने 25 जनवरी को दिया, "आपको सलाह देना कठिन लग रहा है. फिर भी मेरी राय है कि आप एक याचिका तैयार कराएं जिसमें मामले से जुड़े तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों का अपराध पूरी तरह राजनीतिक था... मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं."

अब ये बताना मुश्किल है कि क्या गांधी की कोशिशों का ब्रिटिश सरकार पर कोई प्रभाव पड़ा या नहीं. यहां यह बताना जरूरी है कि महात्मा गांधी और सावरकर के बीच एक मुलाकात इससे पहले लंदन में हो चुकी थी. लेकिन इस भेंट की तासीर अच्छी नहीं रही.

गांधी ने अस्वीकार कर दी मेजबान सावरकर की तली मछली

बात अक्टूबर 1906 की है. सावरकर लंदन में छात्र थे और उनका सर्कल ठीकठाक था. युवा गांधी लंदन में भारतीयों और क्रांतिकारियों के अड्डे इंडिया हाउस में सावरकर से मिलने आए. दोनों के बीच राजनीति और अंग्रेजी नीतियों पर चर्चा होनी थी. गांधी जी जब इंडिया हाउस पहुंचे तो एक मराठी चितपावन ब्राह्मण को झींगा मछली तलता देख हैरान रह गए. गांधी थे शाकाहारी. इस बीच दोनों में बात शुरू हुई तो गांधी ने सावरकर से कहा कि अंग्रेजों के विरुद्ध उनकी रणनीति जरूरत से ज्यादा उग्र है.

सावरकर ने उन्हें टोकते हुए तली हुई मछलियां ऑफर की तो गांधी ने साफ मना कर दिया. तभी सावरकर ने तंज कसा कि बिना मांसाहार के अंग्रेजों की ताकत का मुकाबला कैसे करेंगे? और ये तो सिर्फ मछली है. गांधी अपने मेजबान के घर से बिना खाए लौटे. निश्चित रूप से दोनों के बीच ये पहली मुलाकात अच्छी नहीं रही. ये खाई दोनों नेताओं के विचारों में बदलाव के साथ और भी चौड़ी होती रही.

दरअसल आजादी पाने के लिए सावरकर और गांधी जिस रास्ते पर चल रहे थे वो सफर और इस सफर में उनके साथी एकदम जुदा-जुदा थे. इतिहासकार चमनलाल कहते हैं, "सावरकर हिन्दुस्तान की आजादी के लिए चली तीन धाराओं में से एक धारा का प्रतिनिधित्व करते थे जो धारा धर्म आधारित राज्य का समर्थन करती थी." जबकि गांधी समावेशी और अहिंसा के पथ पर चलते हुए आजादी हासिल करना चाह रहे थे.

हिन्दू और हिन्दुत्व की वैचारिकी

रत्नागिरी जेल में शिफ्ट होने के बाद सावरकर ने यहां एक ऐसी किताब लिखी जिसने हिन्दुत्व शब्द को राजनीतिक पहचान दिया. 1922 में छपी इस किताब का नाम था 'Essentials of Hindutva'. इस किताब में सावरकर ने स्थापना दी कि हिन्दू कौन है? 1928 में ये किताब हिन्दुत्व : हिन्दू कौन है? के नाम से प्रकाशित हुई.

सावरकर एक सभा को संबोधित करते हुए.

इस किताब के जरिए सावरकर ने हिन्दुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में स्थापित कर दिया. विडंबना देखिए कि सावरकर खुद को नास्तिक के रूप में पेश करते हैं. उन्हें मांसाहार से परहेज नहीं, उन्होंने उस समय समुद्र यात्रा की, जब ऐसा करना धर्म खो देना माना जाता था. वे जाति प्रथा के विरोधी थे. लेकिन हिन्दुत्व को लेकर उनकी राय प्रखर और कट्टर रही. सावरकर के अनुसार हिन्दू भारत के वे वासी हैं जो कि भारत को अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानते हैं. सावरकर की इस किताब में एक श्लोक है.

आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिकाः।
पितृभूपुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितिस्मृतः॥

इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति जो सिन्धु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है. सावरकर की हिन्दू की इस परिभाषा में मुस्लिम और ईसाई हिन्दू के दायरे से बाहर हो जाते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार निलंजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "भारत पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक नहीं हो सकते."

जबकि गांधी जिस भारत का सपना देख रहे थे वो समावेशी था. इस भारत में स्वतंत्रता के बाद सभी धर्म के लोग बिना भेदभाव के रहने वाले थे. इसलिए दोनों के बीच टकराव का सहज आधार मिल गया.

आगे की लाइन में बैठे हुए नाना आप्टे, सावरकर, नाथूराम गोडसे, विष्णुपंत करकरे.

सावरकर 1937 में पूर्ण रूप से अंग्रेजों की निगरानी से निकल सके. ये वो समय था जब स्वतंत्रता संग्राम की लहर पूरे रफ्तार पर थी. यहां से सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बन गए. आजादी के आंदोलन के दौरान सावरकर ने गांधी के कई कदमों का विरोध किया. जिनमें 1944 में जिन्ना से वार्ता, तुष्टिकरण की नीतियां और देश का बंटवारा जैसे मुद्दे शामिल थे.

देश की आजादी के बाद 30 जनवरी 1948 में जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी तो सावरकर एक बार फिर सुर्खियों में आए. नाथूराम गोडसे हिन्दू महासभा का सदस्य था. सावरकर के साथ उसकी तस्वीर थी. इस केस की जांच कर रही पुलिस ने लगभग एक सप्ताह बाद यानी कि 5 फरवरी 1948 को सावरकर को गिरफ्तार कर लिया. सावरकर पर हत्या, हत्या की साजिश और हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा. लेकिन ठोस सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया.

सावरकर की मृत्यु 1966 में हुई, लेकिन अपनी मृत्यु के इतने सालों बाद भी वे भारत में 'पोलराइजिंग फिगर' बने हुए हैं.

\\\"स्वर्णिम
+91 120 4319808|9470846577

स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.

मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Laptops | Up to 40% off

अगली खबर

SSC JE Bharti 2024: जेई के 966 पदों पर निकली भर्ती, ssc.gov.in पर करें आवेदन; ये है लास्ट डेट

स्वर्णिम भारत न्यूज़ संवाददाता, पटना। कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) ने जूनियर इंजीनियर (जेई) की भर्ती के लिए अधिसूचना जारी कर दिया है। 966 पदों पर भर्ती के लिए वेबसाइट ssc.gov.in पर जाकर आवेदन कर सकते हैं। आवेदन की अंतिम तिथि 18 अप्रैल है।

आपके पसंद का न्यूज

Subscribe US Now