दिल्ली में विधायकों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी के आम आदमी पार्टी सरकार के प्रस्ताव को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद स्वाभाविक ही अब यहां के जनप्रतिनिधियों में राहत का भाव होगा। इस फैसले के अमल में आने पर दिल्ली के एक विधायक को अब मासिक वेतन-भत्ते के रूप में नब्बे हजार रुपए मिलेंगे। पहले यह राशि चौवन हजार रुपए थी। यानी वेतन-भत्तों में करीब छियासठ फीसद की बढ़ोतरी के बाद अब कहा जा सकता है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार भी इस मामले में अन्य राज्यों के साथ होड़ में है।
अन्य राज्यों की अपेक्षा दिल्ली के विधायकों के वेतन कम थे
दरअसल, देश के कई राज्यों में जनप्रतिनिधियों को वेतन-भत्तों के मद में जो राशि मिलती रही है, उसके मुकाबले दिल्ली में यह कुछ कम थी। लेकिन देश भर में आम जनता और उनके नुमाइंदों की आमदनी में तुलना करते हुए उसे कम भी नहीं माना गया। खासकर जो पार्टी राजनीति में एक नई परिपाटी शुरू करने का वादा करके सत्ता में आई, उसकी सरकार से जनप्रतिनिधियों के मुकाबले पहले आम जनता का खयाल रखने की अपेक्षा की जाती रही है।
सरकार को महंगाई से जूझती आम जनता का भी रखना चाहिए था ध्यान
यों हाल के वर्षों में अमूमन सभी वर्गों के लोगों के खर्चों में जैसी बढ़ोतरी हुई है, महंगाई का स्तर जिस तरह बेलगाम होता गया है, उसमें प्रथम दृष्टया इस वेतन बढ़ोतरी के फैसले का औचित्य दिखता है। लेकिन सवाल है कि खर्च और आमदनी के मामले में आम जनता भी जिस समस्या से दो-चार है, क्या सरकारों को उस पर भी गौर करने की जरूरत महसूस होती है!
विचित्र यह भी है कि सदन में जो विपक्षी पार्टियां सरकार की नीतियों और उसके फैसलों को आमतौर पर कसौटी पर रखती हैं, उसके नुक्तों को निकाल कर उसका विरोध करती हैं, उन सभी के बीच वेतन-भत्तों की बढ़ोतरी के मसले पर शायद ही कभी कोई असहमति के स्वर उभरते हैं।
मसलन, जो भाजपा दिल्ली सरकार के कुछ नेताओं पर सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई या सक्रियता को उनकी आय और भ्रष्टाचार से जोड़ कर देखती है, उसे विधायकों के वेतन-भत्तों में छियासठ फीसद की बढ़ोतरी पर कोई सवाल उठाना जरूरी नहीं लगता। जबकि सरकार की ओर से किसी भी जरूरी या गैरजरूरी खर्च को फिजूलखर्च बताना विपक्ष अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी समझता रहा है।
सही है कि दिल्ली में जनप्रतिनिधियों को अब भी देश के कुछ राज्यों के विधायकों को मिलने वाले वेतन-भत्तों के मुकाबले कम रकम मिलती है और उसके मद्देनजर मौजूदा बढ़ोतरी को बेलगाम नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इसके साथ अगर सरकारें इस बात का भी ध्यान रखें कि जनप्रतिनिधियों की जरूरतों के समांतर आम जनता के सामने भी कई बार आय और क्रयशक्ति की मुश्किल खड़ी होती है, तो ऐसे फैसलों का औचित्य स्थापित होगा।
गौरतलब है कि पंजाब में पिछले साल आम आदमी पार्टी की ही सरकार ने वहां के वर्तमान और पूर्व विधायकों की पेंशन और भत्तों में कटौती की थी। दिल्ली जैसे महानगर में गुजारा करने के लिए आवास, रोजमर्रा के खर्चे, परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई आदि के मद में जितनी न्यूनतम आय की जरूरत होती है, उतनी आज भी यहां की एक बड़ी आबादी बहुत मेहनत करके भी हासिल नहीं कर पाती।
कई जगहों पर संगठित क्षेत्र की नौकरियों तक में कम वेतन से लेकर उसमें असमानता की शिकायतें आम रही हैं। लेकिन कई बार हालात कामगारों को लाचार कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को परिश्रम और पारिश्रमिक के मामले में एक व्यापक नजरिया अपनाना चाहिए। खासतौर पर जो पार्टी आम आदमी के हितों को राजनीतिक मुद्दा बना कर उभरी और सत्ता में आई, उसकी प्राथमिकता में ये सवाल होने चाहिए।
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