जोखिम में बचपन

किसी भी देश और समाज में अपराधों पर काबू पाने की कड़ी व्यवस्था के बावजूद अगर आपराधिक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पाती, तो यह सरकार और तंत्र की नाकामी का ही सबूत है। मगर इसमें भी अगर बच्चों के खिलाफ न सिर्फ

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किसी भी देश और समाज में अपराधों पर काबू पाने की कड़ी व्यवस्था के बावजूद अगर आपराधिक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पाती, तो यह सरकार और तंत्र की नाकामी का ही सबूत है। मगर इसमें भी अगर बच्चों के खिलाफ न सिर्फ अपराध की घटनाएं लगातार जारी हों, बल्कि उनमें न्याय मिलने की दर भी काफी धीमी हो तो यह एक बेहद अफसोसनाक स्थिति है।

हमारे देश में बच्चों के बहुस्तरीय उत्पीड़न और उनके यौन शोषण जैसे अपराधों की रोकथाम में जब पहले के कानूनी प्रावधान नाकाफी साबित हुए, तब पाक्सो यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम जैसी विशेष व्यवस्था की गई। मगर आज भी हालत यह है कि इस कानून के तहत परिभाषित अपराधों के शिकार बहुत सारे बच्चे और उनके परिजन इंसाफ के आस में बैठे हैं। सवाल है कि बच्चों को जघन्य अपराधों से बचाने और न्याय दिलाने के लिए विशेष तंत्र गठित किए जाने के बावजूद ऐसे मामलों की सुनवाई या इस पर फैसला आने की रफ्तार इस कदर धीमी क्यों है?

गौरतलब है कि हाल में संसद में सरकार ने यह जानकारी दी है कि देशभर में बच्चों के खिलाफ अपराध की धाराओं के तहत दर्ज पचास हजार से ज्यादा मामलों में बच्चों को न्याय का इंतजार है। ये वे मामले हैं, जो एक साल के भीतर दर्ज किए गए हैं। जहां कम से कम दर्ज मामलों को ही निर्धारित या फिर जल्दी निपटाने और न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए थी, वहीं अब केंद्र सरकार इससे संबंधित मुकदमों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए समय को तीन वर्ष और बढ़ाने की तैयारी कर रही है।

खुद कानून मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल तक यौन अपराध के लंबित मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल है, जहां अकेले बाल यौन शोषण के अड़सठ हजार दो सौ अड़तीस मामले विचाराधीन हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि केंद्रशासित प्रदेश और राज्यों के पास कुल एक लाख अट्ठानबे हजार दो सौ आठ मामले लंबित पड़े थे, जिनमें से सरकारी एजंसियों ने कुल चौंसठ हजार नौ हजार उनसठ का निपटारा किया है।

यह तब है जब इस प्रकार के मुकदमों की सुनवाई और फैसले के लिए सात सौ अड़सठ त्वरित विशेष अदालतों का गठन किया गया है, जिनके तहत चार सौ अठारह विशिष्ट पाक्सो न्यायालय मौजूद हैं। यही नहीं, पाक्सो के तहत दर्ज मामले में त्वरित सुनवाई और सजा दिलाने के लिए दो महीने की समय सीमा भी तय की गई है। मगर व्यवस्था के बरक्स हकीकत बहुत अलग है।

यह छिपा नहीं है कि यौन शोषण और इस प्रकृति के अन्य उत्पीड़न के लिहाज से बच्चे हर जगह और हर वक्त किस स्तर के जोखिम से गुजरते हैं। घर के बाहर से लेकर दहलीज के भीतर भी कई स्तरों पर उन्हें यौन उत्पीड़न और शोषण को झेलना पड़ता है। सामाजिक आग्रह और सोचने-समझने के सलीके इस कदर तंगनजरी के शिकार हैं कि कई बार आरोपी व्यक्ति के अपने परिवार या पड़ोसी होने की वजह से मामलों को दबा दिया जाता है।

कहा जा सकता है कि एक ओर समाज में परंपरागत मानस और रूढ़ धारणाओं की वजह से तो दूसरी ओर सरकारी और न्यायिक तंत्र की जटिल व्यवस्था के चलते बच्चों को अपने खिलाफ होने वाले यौन अपराधों से उपजी जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शोषण के चक्र में पिसते और इंसाफ से वंचित बच्चों से जैसी पीढ़ी तैयार होगी, वह किसी भी समाज और देश के हित में नहीं होगी।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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