पीएम मोदी की एक चुनावी रैली से निकलकर मंगलसूत्र इस वक्त चर्चा का विषय बना हुआ है. मंगलसूत्र का जिक्र होने का अर्थ है, एक तरीके से पूरे भारतीय समाज को आवाज देना है, क्योंकि छाप-तिलक और कंठी-माला से भी अधिक जो हमारी रोज की जिंदगी का सबसे अभिन्न अंग है, वह मंगलसूत्र ही है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक घूम आइए, मंगलसूत्र हर विवाहित हिंदू महिला के गले में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता मिलेगा. फिर चाहे वह सोने का हो, या सिर्फ धागे में पिरोए काले मोतियों से बना हो. हिंदू महिलाओं के विवाहित होने की पहचान भी यही मंगलसूत्र है.
अब सवाल उठता है कि मंगलसूत्र कहां से आया, कब से पहना जा रहा है और इसका पौराणिक महत्व क्या है? क्या वैदिक-नारियां भी इसे पहनती थीं. क्या किसी पौराणिक घटना में मंगलसूत्र ने अहम भूमिका निभाई थी. महिलाओं के 16 शृंगार में इसका क्या स्थान और महत्व है.
भारतीय सनातन परंपरा में जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीच 16 संस्कारों का विधान है. इन 16 संस्कारों में विवाह संस्कार सबसे खास बना रहा है. यह दो परिवार के लिए उनका निजी उत्सव, उत्साह और समय के साथ-साथ संपन्नता को प्रदर्शित करने का भी एक जरिया रहा है. बल्कि राजाओं-महाराजाओं के युग में तो विवाह संस्कार कूटनीति का भी हिस्सा रहे हैं, इनके जरिए बिना किसी युद्ध और शक्ति प्रदर्शन के समाज को सांकेतिक भाषा में ही अपनी ताकत का अहसास करा दिया जाता था.
इसलिए पौराणिक कथाओं में विवाहों के भी अलग-अलग प्रकार मिलेंगे. किसी ने स्वेच्छा से प्रेम विवाह किया तो उसे गंधर्व विवाह कहा गया, लड़के ने किसी लड़की को जबरन किडनैप करके उससे विवाह कर लिया तो उसे राक्षस विवाह कहा गया. माता-पिता ने वर का पूजन कर कन्यादान करते हुए उसका विवाह किया और वर-वधूदोनों को ही एक सूत्र में बांधा तो उसे प्रजापत्य विवाह कहा जाता है. आम तौर पर आजकल हम जिन हिंदू विवाहों में शामिल होते हैं, वे इसी तरह के प्रजापत्य विवाह के ही प्रकार हैं. इस विवाह में तीन बातें प्रमुख हैं. 1.कन्यादान, 2. फेरे और 3. सूत्र बंधन.
पिता या भाई द्वारा लड़की का कन्यादान किए जाने के बाद, होने वाले पति-पत्नी अग्नि के फेरे लेते हैं और इसके बाद कन्या को पत्नी के तौर पर स्वीकारने के तौर पर पति उसकी मांग में सिंदूर भरता है और मंगलसूत्र पहनाता है. पौराणिक कथाओं में मांग में सिंदूर भरने का जिक्र तो मिलता है, लेकिन विवाह के पहचान की तौर पर किसी खास आभूषण के पहनाने का जिक्र नहीं मिलता है. हालांकि विवाहित स्त्रियों के पास स्त्री धन के तौर पर केशों से लेकर पांव की अंगुलियों तक के लिए कई तरह के आभूषण होते हैं, जो उन्हें विवाह में ही मिलते हैं और सभी मंगल प्रतीकों से ही जुड़े होते हैं. इन्हें धन की देवी लक्ष्मी का रूप माना जाता है, और इस तरह के आभूषणों में खुद पार्वती देवी विराजमान होती हैं, इसलिए ये सभी आभूषण अपने आप ही सुहाग और पतिव्रता की निशानी बन जाते हैं.
ये जरूर है कि पुराण कथाओं में भी पतियों की ओर से पत्नियों को समय-समय पर आभूषण दिए गए, जो कि आज के दौर में उदाहरण बनते हुए सुहाग की निशानी बन गए हैं. जैसे श्रीराम ने सीता जी को मुंहदिखाई में चूड़ामणि दिया था. ये जूड़े के ऊपर मुकुट कीतरह खोंसा जाने वाला एक आभूषण होता था, जो अब प्रचलित नहीं है. इसके अलावा उन्होंने सीता जी को अंगूठी भी पहनाई थी. अंगूठी भी आज भारतीय विवाह का एक प्रतीक आभूषण है, जिसे पति-पत्नी दोनों ही पहनते हैं.
महाभारत में वर्णन मिलता है कि पांचों पांडवों ने द्रौपदी से विवाह करते हुए उसे अलग-अलग आभूषण दिए थे. जिनमें कर्ण फूल, कंठहार, कड़े, मणिबंध (कमर में बांधने वाली लड़ी) और मुंदरी (अंगूठी) शामिल थी. इसी तरह जब श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर उनसे विवाह किया था, तो उन्हें वनफूल की माला पहनाकर स्वीकार किया था.
उत्तर प्रदेश और बिहार की विवाह परंपरा में जब किसी लड़की की शादी होने वाली होती है, तो वह उससे कुछ दिन पहले गौरी व्रत करके, गौरी पूजन करती है. मां गौरी, देवी पार्वती का ही अपर्णा स्वरूप हैं. कहानी के अनुसार, जब पार्वती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो वह शिवजी से विवाह करने की इच्छा लेकर उनकी तपस्या करने चली गईं. कठोर तप के कारण उन्होंने अन्न-जल भी त्याग दिया और अपर्णा कहलाईं. इस कठोर तप से शिवजी प्रसन्न हुए. सबसे पहले उन्होंने देवी को अनुपम सौंदर्य दिया, जिसके कारण वह गौरी कहलाईं, फिर उन्होंने इच्छित पति का वरदान दिया.
लड़कियां गौरी मां का ये व्रत इसलिए करती हैं ताकि उन्हें भी शिवजी की तरह योग्य वर मिले और माता पार्वती की तरह वह भी उसमें निष्ठा रख सकें. इस व्रत की विधि में देवी पार्वती को लाल जोड़ा, चूड़ियां और हल्दी-कुमकुम और केसर से रंगा धागा अर्पित किया जाता है, जिसे प्रसाद के तौर महिलाएं पहनती हैं. लाल जोड़ा सौभाग्य लाता है, चूड़ियां सुहाग की निशानी होती हैं और हल्दी-कुमकुम का धागा पवित्र रिश्ते और उसकी अखंडता कीनिशानी होता है, जिसकी मान्यता मंगलसूत्र से ही मिलती-जुलती है. सीताजी ने भी गौरी मां का व्रत किया था और प्रसाद के तौर पर मां ने उन्हें अपनी ही माला उतारकर दे दी थी. संत तुलसीदास ने मानस में इसका जिक्र किया है.
मंगलसूत्रशब्द काजिक्र दक्षिण भारत में मिलता है. वहां विवाह को मंगलकल्याणम कहते हैं. यानी मांगलिक और कल्याणकारी कार्य. दक्षिण भारत की तमिल-तेलुगूसंस्कृति में विवाह सबसे मंगलकारी और कल्याणकारी संस्कार है. यह संसार में प्रेम को स्थापित करता है और इसके साथ ही नए संसार के निर्माण की नींव भी बनता है. इसलिए यहां के विवाह में बहुत से ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल होता है, जिनके जरिए वर-वधूको विवाह की पवित्रता और उसका महत्व याद दिलाया जाता है, ताकि वे इसे सिर्फ शारीरिक जरूरत का जरिया न समझें.
तमिल विवाह परंपरा में सप्तपदी से पहले कन्या के हाथों में एक पीला धागा बांधा जाता है. ये पीला धागा उसके जीवन में आने वाले बदलावों का प्रतीक होता है, लेकिन जब हम तेलुगूकी पारंपरिक विवाह व्यवस्था में वहां, मंगलसूत्र की एक पूरी परंपरा मिलती है. इसमें सात डोरों के एक समूह को एक साथ मिलाकर हल्दी में डुबोकर रखा जाता है, फिर इसमें सोने की दो लटकन (पेंडेंट) जोड़ी जाती है. अब इससे बनी माला को शादी के समय सप्तपदी से पहले पति, अपनी पत्नी को तीन गले में तीन गांठें बांधकर पहनाता है. ये तीन गांठें पहले तो यह तय करती हैं कि मंगलसूत्र ठीक से बंधा है और गिरेगा नहीं, और इन तीन गांठों को प्रेम, विश्वास और समर्पण की गांठें कहा जाता है. कहते हैं कि पति, पत्नी को इन तीनों का वचन देता है और पत्नी इन वचनों को याद रखते हुए खुद भी इनके पालन का वचन देती है.
मंगलसूत्र के दोनों पेंडेंट शिव-पार्वती का स्वरूप माने जाते हैं, लोककथा है कि शिव ने जब पार्वती से विवाह किया तो उन्हें उनके पूर्व जन्म की याद आ गई. तब शिव को दुख हुआ किकाश सती अपने पिता के दक्ष यज्ञ में न जातीं तो उन्हें भस्म नहीं होना पड़ता और दूसरा कि अगर वहां मैं साथ होता तो शायद ये अनिष्ट नहीं होता, तब शिव ने हल्दी-चंदन के धागे में खुद की शक्ति बांधकर पार्वतीजी के गले में पहनाईं थीं और इस तरह तेलुगूविवाह परंपरा में इसका स्थान बहुत महत्वपूर्ण हो गया.
वैदिक परंपराओं का विकास भले ही उत्तर भारत में हुआ, लेकिन उनका जन्म दक्षिण भारत में ही माना जाता है. हमारी उत्तर भारतीय विवाह परंपरा की वैदिक रीतियां, मंत्र-ऋचाएं सभी प्राचीन तेलुगूपरंपरा से ही निकली हैं, बस लोकाचार में स्थान के आधार पर इनके स्वरूप में थोड़ा बहुत बदलाव है, नहीं तो सभी तौर-तरीके एक जैसे ही हैं. इसलिए उत्तर भारत में भी मंगलसूत्र भले ही काले दाने और सोने की माला से बना दिखता है, लेकिन उसके पहनने-पहनाने का तरीका एक ही जैसा है. समय के साथ नजर न लगना, बुरी शक्तियों को दूल्हा-दुल्हन से दूर रखना और किसी ऊपरी बाधा आदि से बचाव ने ऐसा प्रभाव डाला कि मंगलसूत्र ने अपना रंग ही बदल लिया.
उसके मूल में ही वही पीली डोरी शामिल है, लेकिन अब वह शुद्ध सोने की है, सोना पवित्र धातु है, वह लक्ष्मी का प्रतीक है, आरोग्य का वरदान है, इसके साथ ही काले दाने नकारात्मक शक्तियों को दूर करने वाले हैं और शिव स्वरूप हैं, लिहाजा मंगलसूत्र की भारतीय विवाह परंपरा में बड़ी मान्यता है.
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